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Hunkar = हुंकार

By: Publication details: Lokbharti Paperbacks, 2022 Allahabad:Description: 120p. hbk; 20cmISBN:
  • 9789389243000
Subject(s): DDC classification:
  • 891.43371 DIN
Summary: रामधारी सिंह ‘दिनकर’ करुणा को जीने, विषमताओं पर चोट करने, भाग्‍यवाद को तोड़ने और क्रान्ति में विश्‍वास करनेवाले कवि हैं। यही कारण है कि पराधीन भारत की बात हो या स्‍वाधीन भारत की, वे अपने विज़न और वितान में एक अलग ही ऊँचाई पर दिखते हैं। और इस बात की मिसाल है उनका यह संग्रह ‘हुंकार’। ‘हुंकार’ में इस शीर्षक से कोई कविता नहीं है, लेकिन हर कविता एक हुंकार है। काव्‍य में ओज को कलात्‍मक रूप देनेवाले कवि हैं दिनकर। उन्‍होंने अपने काव्‍य में राष्‍ट्रीय अस्मिता की वह ज़मीन तैयार की, जिससे स्‍वतंत्रता का मार्ग प्रशस्‍त हो सके। उन्‍होंने ‘अनल-किरीट’ में लिखा—‘धरकर चरण विजित शृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं/अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं।’ दिनकर विसंगतियों और विडम्‍बनाओं को तटस्‍थ होकर नहीं देख सकते, वे उनकी जड़ों तक जाते हैं। ‘हाहाकार’ कविता में जो चित्र उन्होंने खींचे हैं, वे बेचैनी से भर देनेवाले हैं, क्‍योंकि यह धरती ऐसी हो गई है, जहाँ चीखें ही चीखें हैं। विदारक तो यह कि कुछ बच्‍चे माँ के सूखे स्‍तन चूस रहे हैं, कुछ की हड्डियाँ क़ब्र से ‘दूध-दूध’ चिल्‍ला रही हैं। इसलिए ‘दिल्‍ली’ जो क्रूर, निर्लज्‍ज और मनमानी की प्रतीक बन चुकी, उसे ललकारते हुए कहते हैं—‘अरी! सँभल, यह क़ब्र न फटकर कहीं बना दे द्वार/निकल न पड़े क्रोध में लेकर शेरशाह तलवार!’ इस संग्रह में दिनकर की दृष्टि वैश्विक है। इसलिए जिस तरह वे ‘तक़दीर का बँटवारा’ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच वार्ता विफल होने पर जन को आगाह करते हैं, उसी तरह ‘मेघ-रन्‍ध्र में बची रागिनी’ में रक्‍तपिपासु इटैलियन फ़ासिस्‍टों के अबीसीनिया पर आक्रमण को लेकर सजग करनेवाली चेतना को प्रतिपादित करने से नहीं चूकते। ‘हुंकार’ क्रान्ति को एक नया रूप देनेवाला ऐसा संग्रह है जो आठ दशकों से विद्रोह की आवाज़ बना हुआ है, सपनों की राह और रोशनी बना हुआ है। https://rajkamalprakashan.com/hunkar.html
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Hindi Books Hindi Books IIT Gandhinagar General 891.43371 DIN (Browse shelf(Opens below)) 1 Available 032068

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ करुणा को जीने, विषमताओं पर चोट करने, भाग्‍यवाद को तोड़ने और क्रान्ति में विश्‍वास करनेवाले कवि हैं। यही कारण है कि पराधीन भारत की बात हो या स्‍वाधीन भारत की, वे अपने विज़न और वितान में एक अलग ही ऊँचाई पर दिखते हैं। और इस बात की मिसाल है उनका यह संग्रह ‘हुंकार’।

‘हुंकार’ में इस शीर्षक से कोई कविता नहीं है, लेकिन हर कविता एक हुंकार है। काव्‍य में ओज को कलात्‍मक रूप देनेवाले कवि हैं दिनकर। उन्‍होंने अपने काव्‍य में राष्‍ट्रीय अस्मिता की वह ज़मीन तैयार की, जिससे स्‍वतंत्रता का मार्ग प्रशस्‍त हो सके। उन्‍होंने ‘अनल-किरीट’ में लिखा—‘धरकर चरण विजित शृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं/अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं।’

दिनकर विसंगतियों और विडम्‍बनाओं को तटस्‍थ होकर नहीं देख सकते, वे उनकी जड़ों तक जाते हैं। ‘हाहाकार’ कविता में जो चित्र उन्होंने खींचे हैं, वे बेचैनी से भर देनेवाले हैं, क्‍योंकि यह धरती ऐसी हो गई है, जहाँ चीखें ही चीखें हैं। विदारक तो यह कि कुछ बच्‍चे माँ के सूखे स्‍तन चूस रहे हैं, कुछ की हड्डियाँ क़ब्र से ‘दूध-दूध’ चिल्‍ला रही हैं। इसलिए ‘दिल्‍ली’ जो क्रूर, निर्लज्‍ज और मनमानी की प्रतीक बन चुकी, उसे ललकारते हुए कहते हैं—‘अरी! सँभल, यह क़ब्र न फटकर कहीं बना दे द्वार/निकल न पड़े क्रोध में लेकर शेरशाह तलवार!’

इस संग्रह में दिनकर की दृष्टि वैश्विक है। इसलिए जिस तरह वे ‘तक़दीर का बँटवारा’ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच वार्ता विफल होने पर जन को आगाह करते हैं, उसी तरह ‘मेघ-रन्‍ध्र में बची रागिनी’ में रक्‍तपिपासु इटैलियन फ़ासिस्‍टों के अबीसीनिया पर आक्रमण को लेकर सजग करनेवाली चेतना को प्रतिपादित करने से नहीं चूकते।

‘हुंकार’ क्रान्ति को एक नया रूप देनेवाला ऐसा संग्रह है जो आठ दशकों से विद्रोह की आवाज़ बना हुआ है, सपनों की राह और रोशनी बना हुआ है।

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