Tap ke taye huye din = ताप के ताए हुए दिन
Publication details: Rajkamal Prakashan, 2019. New Delhi:Edition: 4thDescription: 87p.; hbk; 23cmISBN:- 9788126708192
- 891.43371 SAS
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IIT Gandhinagar | General | 891.43371 SAS (Browse shelf(Opens below)) | 1 | Available | 032560 |
Includes authors introduction
त्रिलोचन शास्त्री प्रगतिशील हिन्दी कविता के दूसरे दौर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में से हैं। इस कविता के पहले दौर के कवियों—मसलन पंत, निराला, नरेन्द्र, सुमन आदि ने छायावादी कविता के अन्तर्विरोधों को परिणति तक पहुँचाकर उसे यथार्थवादी भूमि पर उतार दिया था। प्रगतिशील कविता के दूसरे दौर के कवि मसलन—केदार, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन और मुक्तिबोध ने हिन्दी कविता को यथार्थ की भूमि पर निरन्तर विकसित किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यही यथार्थवादी कविता छायावादोत्तर हिन्दी कविता में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धारा है। इस धारा में त्रिलोचन का योगदान अपरिमित और ऐतिहासिक है।
त्रिलोचन जीवन-संघर्ष और जीवन-सौन्दर्य के अप्रतिम कवि हैं। उनकी कविता में चित्रित संघर्ष और सौन्दर्य केवल उनका नहीं, बल्कि उस हिन्दीभाषी जाति का संघर्ष और सौन्दर्य है, जिसे देखने और पहचानने की क्षमता हिन्दी कविता के आधुनिकतावादी माहौल में लगातार खोती गई है। त्रिलोचन ने न केवल उसे देखा और पहचाना, बल्कि उससे वैसा आन्तरिक लगाव स्थापित किया, जैसा कविता में तुलसीदास और निराला तथा गद्य में प्रेमचन्द जैसे कथाकारों में ही देखने को मिलता है। प्रगतिशील कवि त्रिलोचन ने प्रचलित अर्थ में राजनीतिक कविताएँ बहुत कम लिखी हैं पर राजनीति की मूल्यपरक गहरी चेतना निस्सन्देह उनकी कविता को सदा अनुप्राणित करती रही। उनकी कविता इस बात का प्रमाण है कि प्रगतिशील कविता कोई संकीर्ण और एकपक्षीय कविता नहीं, बल्कि ऐसी कविता है जिसमें जीवन की तरह ही व्यापकता और विविधता है, प्रकृति की तरह ही रंग-बिरंगापन है।
त्रिलोचन ने ग़ज़ल, रुबाई, सॉनेट जैसे हिन्दीतर कविता के क्लासिकीय काव्य-रूपों में भी कविता रची है और हिन्दी के नए-पुराने काव्य-रूपों तथा छन्दों में भी। उनकी विशेषता यह है कि वे काव्य-रूप की स्थिरता और सार-तत्त्व की गतिशीलता के द्वन्द्व से कविता में एक ऐसे वेग और शक्ति की सृष्टि करते हैं जिनकी मिसाल हिन्दी कविता में केवल ‘निराला’ में सुलभ है। क्लासिकीय अनुशासन और आधुनिक स्वच्छन्दता त्रिलोचन की अपनी पहचान है। तुलसीदास ने संस्कृत शब्दों के योग से अवधी भाषा को उन्नत किया था, त्रिलोचन ने अवधी भाषा के योग से खड़ी बोली को रस से भर दिया है। उनकी हीरे की तरह कठोर और दीप्तिपूर्ण काव्य-भाषा अवधी की देशी खांड-जैसी मिठास से युक्त है। ताज्जुब की बात नहीं कि प्रगतिशील हिन्दी कवियों की नवीनतम पीढ़ी त्रिलोचन जैसे कवियों के दाय को समझने और आत्मसात् करने की दिशा में ललक और लगन के साथ बढ़ रही है।
—नन्दकिशोर नवल
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