Daste-saba = दस्ते-सबा
Publication details: Rajkamal Prakashan, 2021. New Delhi:Description: 101p.; pbk; 20cmISBN:- 9789389598438
- 891.43371 FAI
Item type | Current library | Collection | Call number | Copy number | Status | Date due | Barcode |
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IIT Gandhinagar | General | 891.43371 FAI (Browse shelf(Opens below)) | 1 | Available | 032442 |
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891.43371 DIN Dinkar ke geet = दिनकर के गीत | 891.43371 FAI Mere dil mere musafir = मेरे दिल मेरे मुसाफिर | 891.43371 FAI Naqsh-e-fariyadi = नक्श-ए-फरियादी | 891.43371 FAI Daste-saba = दस्ते-सबा | 891.43371 FAI Zindan-nama = जिंदा-नामा | 891.43371 FAI Faiz = फैज | 891.43371 FAI Saare sukhan humare = सारे सुखन हमारे |
Includes authors introduction
दस्ते-सबा’ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का दूसरा कविता-संग्रह है, जिसका न सिर्फ़ उनके साहित्य में, बल्कि समूचे प्रगतिशील साहित्य में ऐतिहासिक महत्त्व है। यह जब नवम्बर 1952 में प्रकाशित हुआ था, तब फ़ैज़ रावलपिंडी ‘साज़िश’ मुक़दमे के तहत हैदराबाद सेंट्रल जेल (पाकिस्तान) में बन्द थे।
कॉलेज के दिनों में रोमान से भरपूर फ़ैज़ ने देश-दुनिया की जिन सच्चाइयों का सामना करते हुए ‘ग़मे-जानाँ’ और ‘ग़मे-दौराँ’ को एक ही तजुर्बे के दो पहलू माना था, वे और भी ठेठ सूरत में उनके सामने आ चुकी थीं। लेकिन अब इस तजुर्बे के साथ एक और चीज़ जुड़ चुकी थी—जेल का तजुर्बा। फ़ैज़ ने इसका ज़िक्र करते हुए ख़ुद लिखा है—‘जेलख़ाना आशिक़ी की तरह ख़ुद एक बुनियादी तजुर्बा है, जिसमें फ़िक्र-ओ-नज़र का एकाध नया दरीचा ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाता है।’ इसलिए इस संग्रह में हम फ़ैज़ के उस जज़्बे को और पुरज़ोर होता देख सकते हैं, जिसे कभी उन्होंने ‘क्यों न जहाँ का ग़म अपना लें’ कहकर दिखाया था। साथ ही अपने उसूलों के लिए लड़ने का फौलादी इरादा भी कि ‘मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है।’
https://rajkamalprakashan.com/daste-saba.html
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